मोहमुद्गर स्तोत्रम्
भज गोविन्दम्
01
गोविन्दं भज मूढमते
सम्प्राप्ते सन्निहिते काले
नहि नहि रक्षति डुकृङ्करणे
भज = पूजा, गोविन्दम् = गोविंदा, मूढमते = बेवकूफ, सम्प्राप्ते = प्राप्त होने पर, सन्निहिते = निर्धारित पर, काले = समय, न = नहीं,
हि = निश्चित रूप से, रक्षति = रक्षा करता है, डुकृङ्करणे = व्याकरण शास्त्र.
गोविंदा की पूजा करो अरे मूर्ख!
मृत्यु के नियत समय पर
व्याकरण के नियमों का अध्ययन तुम्हें नहीं बचा पाएंगे।
02
कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्
वित्तं तेन विनोदय चित्तम्
अनावश्यक इच्छावों को छोडदे और अपने मन में ज्ञान और अच्छे कर्मो तथा शाश्वत वास्तविकता के विचारों को पोषित करें।
जो कर्म तुमने पहले किए हैं, उनसे जो मिलता है,
उसी से अपने मन को प्रसन्न रखो।
दृष्ट्वा मा गा मोहावेशम्
एतन्मांसवसादिविकारम्
मनसि विचिन्तय वारं वारम्
नारी = महिला, स्तनभर = भारी स्तन, नाभी = नाभि, देशम् = क्षेत्र,
दृष्ट्वा = देखकर, मा = मत करना, गा = शिकार होना, मोहावेशम् = भ्रम की स्थिति, एतत् = यह, मांस = मांस, वसा = चर्बी,
आदि = इत्यादि, विकारम् = परिवर्तन, मनसि = मन में, विचिन्तय = विचार करें, वारं वारम् = बार बार.
ये सिर्फ मांस, चर्बी इत्यादी का परिवर्तित विकृति है।
इसे अपने मन में बार बार याद करे।
नलिनीदलगतजलमतितरलम्
तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तम्
लोकं शोकहतं च समस्तम्
के समान मनुष्य का जीवन अनिश्चित है।
जान लो कि रोग, अहंकार और
शोक का शिकार बना हुआ है सारी दुनिया।
यावद्वित्तोपार्जनसक्तः
स्तावन्निजपरिवारो रक्तः
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे
वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे
तब तक उस के रिश्तेदार उससे जुड़े रहते हैं और प्यार से पेश करते है।
लेकिन जब शरीर बुढ़ापे में कमजोर हो जाता है,
तो घर में कोई उससे बात करने की भी परवाह नहीं करता।
यावत्पवनो निवसति देहे
तावत्पृच्छति कुशलं गेहे
गतवति वायौ देहापाये
भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये
यावत् = जब तक, पवनः = श्वास, निवसति = बसता
है, देहे = शरीर में, तावत् = तब तक, पृच्छति = पूछता
है, कुशलम् = योगक्षेम, गेहे = घरमें, गतवति = जाने
के बाद, वायौ = श्वास, देह = शरीर, अपाये = सड़ने लगता है, भार्या = पत्नी, बिभ्यति = भयभीत होना, तस्मिन् = उसमें, काये = शरीर
का.
तब तक परिवार के लोग उसका हालचाल पूछते हैं,
लेकिन जब आत्मा शरीर से निकल जाती है और शरीर सड़ने लगता है
तो उसकी पत्नी भी शव के पास जाने से डरती है।
बालस्तावत्क्रीडासक्तः
तरुणस्तावत्तरुणीसक्तः
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः
परमे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः
युवावस्ता में वे युवतियोंसे आकर्षित होते है।
बुजुर्गावस्था कई चीजोंकी चिंता करते बीत जाता है।
मगर कोई नहीं है जो परब्रह्म के प्रति रूचि और लगाव रखना चाहता है।
का ते कान्ता कस्ते पुत्रः
संसारोऽयमतीव विचित्रः
कस्य त्वं कः कुत आयातः
तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः
का = कौन, ते = तेरा, कान्ता = पत्नी,
कः = कौन, ते = तेरा, पुत्रः = बेटा,
संसारः = भौतिक बंधन/प्राकृतिक भ्रांति,
अयम् = यह, अतीव = अत्यंत, विचित्रः = अजीब, कस्य = किसका, त्वम् = तू,
कः = कौन (हैं आप), कुतः = कहाँ से, आयातः = आ गए हैं, तत्त्वम् = सच्चा सिद्धांत (सत्य का ज्ञान),
चिन्तय = सोचें, प्रतिबिम्बित करें,
तत् = वह, इह = यहां, भ्रातः = भाई.
यह परिवार अत्यंत विचित्र है।
तुम कौन? तुम कहाँ से आये हो?
इन सच्चाइयों पर विचार करो, भाई।
सत्सङ्गत्वे निस्सङ्गत्वम्
निस्सङ्गत्वे निर्मोहत्वम्
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वम्
निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः
सत्सङ्गत्वे = अच्छों की संगत
से, निस्सङ्गत्वम् = भौतिक/पारिवारिक
मोह से मुक्ति, निस्सङ्गत्वे = भौतिक/पारिवारिक
भ्रम की मुक्ति से, निर्मोहत्वम् = भ्रम
से स्वतंत्रता, निर्मोहत्वे = भ्रम के स्वतंत्रता
से, निश्चल = स्थिर/प्रबल, तत्त्वम् = सच्चा सिद्धांत (सत्य का ज्ञान),
निश्चलतत्त्वे = सच्चा
सिद्धांत/सत्य का ज्ञान से, जीवन्मुक्तिः = जीवनमुक्ति.
निर्लिप्तता से लालच और भ्रांति निकल जाएगा।
लालच और भ्रम से मुक्त होनेसे व्यक्ति शाश्वत सत्य को समझ पाता है,
शाश्वत सत्य की समझ और साक्षात्कार मुक्ति की ओर ले जाता है।
वयसि गते कः कामविकारः
शुष्के नीरे कः कासारः
क्षीणे वित्ते कः परिवारः
ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः
वयसि गते = जब जवानी चली जाती है,
कः = कहाँ है, कामविकारः = लैंगिक इच्छा, शुष्के नीरे = जब
पानी सूख जाता है, कः = कहाँ है, कासारः = तालाब, क्षीणे
वित्ते = जब संपत्ति कम होती है, कः = कहाँ
है, परिवारः = परिवार/ रिश्तेदार,
ज्ञाते तत्त्वे = सत्य
(तत्व) को जानने के बाद, कः = कहाँ है, संसारः = संसार (प्राकृतिक भ्रांति/अस्तित्व का चक्र).
जब पानी सूख जाता है तो सरोवर कहाँ होती है?
जब धन संपत्ति चला जाता है तो परिवार के लोग कहाँ होते हैं?
जब तत्त्वज्ञान हो जाता है तो परिवार और दुनिया कहाँ है?
मा कुरु धनजनयौवनगर्वम्
हरति निमेषात्कालः सर्वम्
मायामयमिदमखिलं बुध्वा
ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा
मा = मत करो, कुरु = करना, धन = धन,
जन = लोग, यौवन = युवाओं, गर्वम् = गरिमा, हरति = लेता
है, निमेषात् = एक पल में, कालः = समय, सर्वम् = सब
कुछ, मायामयम् = पूरी तरह से भ्रांतिपूर्ण,
इदम् = यह, अखिलम् = सभी, बुध्वा = समझने
के बाद, ब्रह्मपदम् = ब्रह्मपद /आत्म-ज्ञान, त्वम् = तू, प्रविश = प्रवेश,
विदित्वा = जानकर.
यह सबकुच एक ही क्षण में नष्ट हो सकता है।
जब आप यह समझते हैं कि ये सभी अस्थायी दुनिया के भ्रांतियाँ हैं,
तब आप शाश्वत सत्य या आत्म-ज्ञान को प्राप्त करेंगे।
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः
शिशिरवसन्तौ पुनरायातः
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः
तदपि न मुञ्चत्याशावायुः
सर्दी और बसंत बार बार आते जाते रहते हैं।
काल की इस क्रीड़ा के सात जीवन बीत जाता है,
लेकिन इच्छाओं का अंत कभी नहीं होता।
वातुल किं तव नास्ति नियन्ता
त्रिजगति सज्जनसङ्गतिरेका
भवति भवार्णवतरणे नौका
क्या तुझे राह दिखाने वाला कोई नहीं है?
तीनो लोको में केवल सज्जनो का सात ही इस संसार [जन्म और मृत्यु चक्र]
सागर से बाहर जाने की नौक है।
जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः
काषायाम्बरबहुकृतवेषः
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः
उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः
कुच लोगों के बाल उखाड़े गए हैं; कुछ लोग भगवा वस्त्र पहनते हैं, तो कुछ अन्य लोग विभिन्न रंगों के वस्त्र पहनते हैं –
ऐसे मूढ़ हैं जो आँखों से देखते हैं लेकिन सत्य को नहीं समझ पाते कि
ये सभी पेट भरने के लिए विभिन्न वेशभूषा धारण करते हैं।
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डम्
दशनविहीनं जातं तुण्डम्
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डम्
तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्
अङ्गम् = हाथ पैर, गलितम् = कमज़ोर होना, पलितम् = सफेद बाल, मुण्डम् = सिर, दशन = दांत,
विहीनम् = नहीं होना, जातम् = होगया, तुण्डम् = मुंह,
वृद्धः = बूढ़ा, याति = जाते हैं, गृहीत्वा = लेकर/ पकड़कर,
दण्डम् = दण्ड, तदपि = फिर भी, न = नहीं, मुञ्चति = छोड़ देना, अशापिण्डम् = आशाओं का ढेर.
मुंह में सभी दांत टूट जाता है,
और बूढ़े आदमी को छड़ी की सहारा लेकर चलना फिरना पड़ता है।
फिर भी अधूरी इच्छाओं में मजबूती से फंसे हुए है।
अग्रे वह्निः पृष्ठे भानुः
रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः
करतलभिक्षस्तरुतलवासः
तदपि न मुञ्चत्याशापाशः
रात में ठंड से बचने के लिए शरीर को घुटने ठोड़ी को छूने तक मोड़कर लेट जाते है;
खाली हाथों में भीख मांग कर खाते हैं और पेड़ों के नीचे सोते हैं।
फिर भी वे अपनी इच्छाओं की बेड़ियों से मुक्त नहीं हैं।
कुरुते गङ्गासागरगमनम्
व्रतपरिपालनमथवा दानम्
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन
भजति न मुक्तिं जन्मशतेन
कड़ाई से व्रत का पालन करें या दान करें,
लेकिन फिर भी, सभी मान्यताओं के अनुसार,
ज्ञान प्राप्त किए बिना कोई भी सौ जन्मों के बाद भी मुक्ति नहीं पा सकता।
सुरमंदिरतरुमूलनिवासः
शय्या भूतलमजिनं वासः
सर्वपरिग्रहभोगत्यागः
कस्य सुखं न करोति विरागः
मृगचर्म पहनकर जमीन को बिस्तर बना कर सोता है,
सभी भौतिक सुखों के साधनों का त्याग करता है,
ऐसे त्याग से किसे जीवन में वैराग्य और सुख नहीं मिल सकता?
योगरतो वा भोगरतो वा
सङ्गरतो वा सङ्गविहीनः
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तम्
नन्दति नन्दति नन्दत्येव
दूसरों के साथ रहना या अकेला रहना पसंद कर सकता है।
लेकिन जिन लोगों का मन को हमेशा ब्रह्म की ध्यान में रुचि होती है केवल वही
हमेशा आनंद का अनुभव कर सकते है।
भगवद्गीता किञ्चिदधीता
गङ्गाजललवकणिका पीता
सकृदपि येन मुरारिसमर्चा
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा
गंगा नदी की सिर्फ एक बूँद पानी पी लिया हो,
सिर्फ एक बार मुरारी [कृष्ण] की पूजा किया हो,
तो उसे यम [मृत्यु के भगवान] के साथ कोई विवाद नहीं होगी।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणम्
पुनरपि जननीजठरे शयनम्
इह संसारे बहुदुस्तारे
कृपयाऽपारे पाहि मुरारे
बार-बार माँ के गर्भ में लेटे रहना।
इस असीमित संसार चक्र को पार करना बहुत मुश्किल है।
कृपा करके अपनी अनंत दया से मुझे इस से बचाएं, ओ मुरारी।
रथ्याचर्पटविरचितकन्थः
पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः
योगी योगनियोजितचित्तः
रमते बालोन्मत्तवदेव
पाप और पुण्य से मुक्त होकर आगे की ओर बढ़ते,
जो अपने मन में लीन और भगवान के साथ एक हो गया है वह योगी
शुद्ध और अप्रदूषित आनंद लेता है, एक बच्चे की तरह और पागल की तरह।
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः
का मे जननी को मे तातः
इति परिभावय सर्वमसारम्
विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम्
मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है?
इस तरह से अच्छे से विचार करें, और समझें कि ये सभी सारहीन हैं,
और इस दुनिया के अनुभव को एक निरर्थक स्वप्न समझकर खारिज करें।
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः
र्व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः
भव समचित्तः सर्वत्र त्वम्
वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम्
आपका मुझ पर गुस्सा और अधीरता व्यर्थ है।
हमेशा सभी परिस्थितियों में समभाव रखे
यदि आपको विष्णुपद जल्दी प्राप्त करना है तो।
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ
मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानम्
सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम्
बहुत प्यार करने या झगड़ने की प्रयास न करें।
हर जगह हर चीज़ में खुद को पहचानें,
और उस अज्ञानता से छुटकारा पाएं जो विविधता और विभाजन का कारण बन रही है।
कामं क्रोधं लोभं मोहम्
त्यक्त्वाऽत्मानं पश्यति सोऽहम्
आत्मज्ञानविहीना मूढाः
ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः
त्याग देंगे तब ये समज में आएगा कि केवल एक आत्मा है जो हर जगह और स्वयं के भीतर है।
आत्मज्ञान के बिना मूढ़ लोग
नरक के बंधन में अनंत काल तक तड़पते हैं।
गेयं गीतानामसहस्रम्
ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तम्
देयं दीनजनाय च वित्तम्
हमेशा श्रीपति के रूप का ध्यान करें।
अपने मन को अच्छे और सज्जनों के साथ रहने के लिए प्रेरित करें,
और अपनी संपत्ति को गरीब जरूरतमंदों को दान में बांटें।
सुखतः क्रियते रामाभोगः
पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः
यद्यपि लोके मरणं शरणम्
तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्
बाद में उनके शरीर रोगग्रस्त हो जाता है।
हालांकि इस दुनिया में अंततः मृत्यु निश्चित है,
फिर भी पाप के व्यवहार को नहीं छोड़ते।
अर्थमनर्थं भावय नित्यम्
नास्तिततः सुखलेशः सत्यम्
पुत्रादपि धनभाजां भीतिः
सर्वत्रैषा विहिता रीतिः
सच यह है कि इससे थोड़ी भी खुशी नहीं मिलती।
अमीरों को उनके बेटे से भी नुकसान होने का डर होता है,
हर जगह यही तरीका है।
प्राणायामं प्रत्याहारम्
नित्यानित्य विवेकविचारम्
जाप्यसमेतसमाधिविधानम्
कुर्ववधानं महदवधानम्
नित्य और अनित्य के बीच के भेद के बारे में विवेक से विचार करें।
जप करें और मन को शांत करें,
इन सबको बहुत सावधानी से और जागरूकतासे करें।
गुरुचरणाम्बुजनिर्भरभक्तः
संसारादचिराद्भव मुक्तः
सेन्द्रियमानसनियमादेवम्
द्रक्ष्यसि निजहृदयस्थं देवम्
जल्द ही सांसारिक जीवन के बंधन से मुक्त हो जाएगा।
इंद्रियों और मन के अनुशासित नियंत्रण के माध्यम से,
अपने ह्रदय में निवासित भगवान का अनुभव करें।